पहली बार हार, फिर दो बार जीते शिव प्रसाद साहू

1980 में रामटहल चौधरी स्वतंत्र लड़े थे और 1984 में थाम लिया भाजपा का दामन

संजय कृष्ण, रांची

लोहरदगा के प्रसिद्ध व्यवसायी और समाजसेवी कांग्रेस के नेता शिव प्रसाद साहू ने रांची से दो बार लोकसभा का प्रतिनिधित्व किया। पहली बार 1980 में और दूसरी बार 1984 में। 1977 की हवा में जीतकर गए रवींद्र वर्मा फिर दुबारा रांची आए नहीं। यहां की जनता की कोई खोज-खबर ली नहीं, जबकि वे मोरारजी देसाई के बहुत खास थे। वे बड़े नेता थे और राष्ट्रीय ही नहीं अंतरराष्ट्रीय पहचान भी थी, लेकिन रांची की जनता के काम न आ सके। जनता ने भी अब कांग्रेस को वोट देने का मन बना लिया था। तब कांग्रेस आई बन गई थी। कांग्रेस आई अर्थात इंदिरा गांधी की कांग्रेस। कांग्रेस आई ने दुबारा शिव प्रसाद साहु को अपना उम्मीदवार रांची से बनाया और इस बार उन्होंने निराश नहीं किया। 1977 की हवा में उड़े शिव प्रसाद साहू को इस बार उन्हें 38.66 प्रतिशत मत मिला था और जीतकर पहली बार संसद पहुंचे। 1980 के इस चुनाव में रांची से 17 लोग मैदान में थे। रामटहल चौधरी इस चुनाव में स्वतंत्र लड़े थे और पांचवें नंबर थे। अगली बार 1984 में रामटहल चौधरी भाजपा से चुनाव लड़े और इस बार वे दूसरे स्थान पर रहे। 1980 में उन्हें 8.86 प्रतिशत मत मिला था और 1984 में इनका मत प्रतिशत दोगुना हो गया। यानी 16.51 प्रतिशत। इस चुनाव में कुल 23 उम्मीदवार मैदान में थे। 1984 में ही सुबोधकांत सहाय पहली बार रांची से जनता पार्टी से चुनाव लड़े और तीसरे स्थान पर रहे और उन्हें 15.42 प्रतिशत मत मिला। इस बार रोशनलाल भाटिया लोकदल के बैनर तले खड़े हुए। वे चौथे स्थान पर थे और उन्हें 5.61 प्रतिशत मत मिला था।


1984 में साहू को मिला था 49.47 प्रतिशत मत

वर्तमान राज्यसभा सदस्य धीरज साहू के बड़े भाई थे शिव प्रसाद साहू। लोहरदगा में उनका जन्म सात जनवरी 1934 को हुआ था और निधन 23 जनवरी 2001 को। वे छोटा नागपुर बाक्साइट वर्कर्स यूनियन, रांची जिला बाक्साइट और चाइना क्ले माइंस कर्मचारी संघ के महासचिव थे। वह कई कालेजों व स्कूलों के अध्यक्ष और लोहरदगा नगर पालिका के भी अध्यक्ष रहे। 1980 में वे लोकसभा पहुंचे और फिर अगली बार भी रांची की जनता ने उन्हें संसद भेज दिया। 1984 में उन्हें 49.47 प्रतिशत मत मिला। यानी, इस बार उनका मत प्रतिशत भी बढ़ गया। 1980 में 38.66 मत मिला था। सीधे दस प्रतिशत का इजाफा हुआ था। इन्हें 162945 मत मिला। इसमें कुल 23 लोग मैदान में थे और अंतिम नंबर पर दीनबंधु गोप थे, जिन्हें मात्र 412 मत मिला। कुल 17 लोग स्वतंत्र लड़े थे। निर्मल महतो झारखंड मुक्ति मोर्चा से लड़े थे। उन्हें रांची की जनता ने 10113 वोट दिया। नृपेंद्र कृष्ण महतो आल इंडिया फारवर्ड ब्लाक से लड़े थे और 5085 मत मिले।

रवींद्र वर्मा के प्रचार में आचार्य कृपलानी व आडवाणी आए थे रांची



संजय कृष्ण, रांची : 


कहा जाता है कि 1977 का चुनाव न पार्टी लड़ रही थी न नेता लड़ रहे थे। यह चुनाव देश की जनता लड़ रही थी। आपातकाल के बाद छठवें लोकसभा चुनाव में रांची ने भी अहम भूमिका निभाई। यहां से इस बार चुनाव में रांची का कोई नेता नहीं, मोरारजी देसाई के विश्वासपात्र रवींद्र वर्मा चुनाव लड़े। वे प्रसिद्ध चित्रकार राजा रवि वर्मा के परिवार से थे।

रांची आकर उन्होंने नामांकन किया और पूरा चुनाव प्रचार कार्य रांची के प्रसिद्ध उद्योगपति हनुमान प्रसाद सरावगी के घर से ही किया। उनके प्रचार में लालकृष्ण आडवाणी और आचार्य कृपलानी आए थे। आडवाणी की सभा हटिया में हुई थी और तब उन्होंने कहा था, विदेशी मामलों में रवींद्र वर्मा मेरे गुरु हैं। हनुमान प्रसाद सरावगी के पुत्र विनय सरावगी बताते हैं, तब मैं मैट्रिक में पढ़ता था। उन्होंने यहां नामांकन करते समय किसी से पूछा कि कोई हनुमान प्रसाद सरावगी को जानता है? एक सज्जन उनको लेकर मेरे घर आए और यहीं से उनका प्रचार अभियान शुरू हुआ। पिता जी से उनकी मुलाकात मुंबई में यूथ कांग्रेस के अधिवेशन में हुई थी। वे यहां महीने भर से ऊपर रहे। सप्ताह में दो दिन मोरारजी देसाई का फोन आता था। सुबह वे चुरुवाला चौक पर एक चाय की दुकान होती थी, वहीं चाय पीते थे। भोजन की व्यवस्था ऐसी थी कि उनके लिए टिफिन उनके कमरे में रख दिया जाता। वे 16 भाषाओं के विद्वान थे। भारतीय लोक दल से वे चुनाव लड़े थे। रांची, खूंटी व लोहरदगा का चुनाव प्रचार का अभियान मेरे घर से ही संचालित होता था। उस समय करीब 70-80 हजार रुपये खर्च हुए थे। रांची लोकसभा वे जीतकर संसद में पहुंचे। हालांकि वे फिर कभी रांची नहीं आए और 1980 का चुनाव मुंबई से लड़े और मृणाल गोरे को हराया था। 2002 में जरूर वे रांची आए तो हनुमान प्रसाद सरावगी और उनके परिवार से मिले।


13 लोग थे चुनाव मैदान में

1977 के चुनाव में रांची लोकसभा से 13 लोग मैदान में थे। कांग्रेस से शिव प्रसाद साहू मैदान में थे और उन्हें मात्र 25.54 प्रतिशत ही मत मिले। अंतिम प्रत्याशी अहमद आजाद को मात्र 0.14 प्रतिशत मत मिला था। इस चुनाव में 47.73 प्रतिशत ही मतदान हुआ था। यानी, इंदिरा के खिलाफ चली आंधी और इमरजेंसी को भुगतने के बाद भी रांची की जनता वोट देने के लिए आधे से भी कम संख्या में निकली। इस चुनाव में सीपीएम ने भी भाग्य आजमाया लेकिन उसे चौथे स्थान से ही संतोष करना पड़ा। रोशनलाल भाटिया कहते हैं, नामांकन करने के बाद प्रचार किया नहीं। वहीं, लेखानंद झा कहते हैं कि आज धर्म और जाति की राजनीति हो रही है। तब वैसा नहीं था।


किसे कितना मिला मत


नाम दल मत प्रतिशत

रवींद्र वर्मा भालोद 130938 -49.02 प्रतिशत

शिव प्रसाद साहू कांग्रेस 68222 -25.54 प्रतिशत

घनश्याम महतो स्वतंत्र 22721 -8.51 प्रतिशत

राजेंद्र सिंह सीपीएम 13626-5.10 प्रतिशत

रोशन लाल भाटिया स्वतंत्र 10146-3.80 प्रतिशत

अबरारुल हुदा स्वतंत्र 7223 -2.70 प्रतिशत

ऋषिकेश महतो स्वतंत्र 3704-1.39 प्रतिशत

बीरेंद्र कुमार पांडेय झारखंड पार्टी 2640-0.99 प्रतिशत

लेखानंद झा स्वतंत्र 2372 -0.89 प्रतिशत

मथुरा प्रसाद स्वतंत्र 2149-0.80 प्रतिशत

मोएस गुड़िया स्वतंत्र 2143 0.80 प्रतिशत

गिरजा नंदन प्रसाद सिन्हा स्वतंत्र 833-0.31 प्रतिशत

अहमद आजाद स्वतंत्र 375-0.14 प्रतिशत

1962 में पीके घोष बने रांची के सांसद


संजय कृष्ण, रांची

रांची पूर्वी से 1952 में कांग्रेस ने जीत दर्ज की, लेकिन दूसरे और तीसरे चुनाव में उसे हार का मुंह देखना पड़ा। पहले आमचुनाव में कांग्रेस से इब्राहिम  अंसारी ने जीत दर्ज की थी, लेकिन इसके बाद हुए दोनों आमचुनाव में जनता ने अपना मत उन्हें नहीं दिया। दूसरी बार मुंबई से आए और झारखंड पार्टी के बैनर से चुनाव लड़े मीनू मसानी को संसद में भेज दिया और तीसरी बार भी उसने कांग्रेस के प्रत्याशी इब्राहिम अंसारी के बजाय स्वतंत्र पार्टी से पहली बार चुनाव में खड़े प्रशांत कुमार घोष यानी पीके घोष को संसद में भेज दिया। स चुनाव में प्रशांत घोष को 43256 मत मिले और इब्राहिम अंसारी को 38233 मत। रांची ईस्ट से कुल आठ लोग चुनाव मैदान में थे। पहली बार मारवाड़ी अर्जुन अग्रवाल भी मैदान में थे और वे जयपाल सिंह की पार्टी से चुनाव मैदान में थे। इनके अलावा गोपाल महतो, अनंग मोहन मुखर्जी, चामू सिंह मुंडा, शशिराय सिंह और एमएच बजराय मुंडा। वहीं, रांची वेस्ट आरक्षित सीट थी। यहां से तीसरी बार जयपाल सिंह जीतकर संसद पहुंचे। यहां जोसेफ तिग्गा को दूसरे स्थान से संतोष करना पड़ा। तीसरे प्रत्याशी थे लाल सिंह मुनारी। कुल तीन ग ही यहां से मैदान में थे। तीन बार रहे सांसदप्रशांत कुमार घोष रांची से तीन बार सांसद रहे। 20 दिसंबर, 1926 को जन्म हुआ। 11 दिसंबर, 1962 में शादी हुई और 25 दिसंबर 2013 में रांची में निधन। पहली बार वे स्वतंत्र पार्टी से चुनाव लड़े थे। हालांकि छात्र जीवन से वे फारवर्ड ब्लाक के सदस्य रहे, लेकिन स्वतंत्र पार्टी के अध्यक्ष के आग्रह पर रांची पूर्वी लोकसभा से मैदान में खड़े हो गए और जीत दर्ज की। डा. रामरंजन सेन ने लिखा है कि उनकी जीत के पीछे उनके पिता तारा प्रसन्न घोष की अहम भूमिका थी। वे एक सामाजिक आदमी थे। समाज के लिए काफी काम किया। इस काम का ही असर था कि वे झारखंड पार्टी व कांग्रेस प्रत्याशी को हरा सके। बाद में वे दीप नारायण सिंह के आग्रह पर कांग्रेस में शामिल हो गए। इसके बाद 1967 में कांग्रेस के नर पर चुनाव लड़े और विजयी हुए। इसके बाद 1971 में रांची से ही चुनाव लड़े और संसद पहुंचे। बाद में उनकी जगह पर शिवप्रसाद साहू को टिकट दिया गया, लेकिन वह चुनाव हार गए। दूसरी बार शिव प्रसाद साहू जीत दर्ज की। पीके घोष 1980 से 84 तक छोटानागपुर व संताल परगना के कांग्रेस महासचिव भी रहे। 1965 में एचइसीकर्मियों के विस्थापित लोगों के हर परिवार से एक-एक सदस्य को नौकरी दिलाने के लिए भी संसद का ध्यान आकृष्ट कराया। बहुत हद तक सफल रहे। इसके बाद इसी साल एचइसी कारखाना व क्वार्टर का काम पूरा हो गया तो एक हजार सिविल इंजीनियर तथा अन्य कर्मचारियों के बर्खास्त की नौबत आ गई। पीके घोष ने 80 सांसदों के हस्ताक्षर करवाकर संसद में ध्यानाकर्षण प्रस्ताव पेश किया। तब केंद्र सरकार ने बर्खास्ती का प्रस्ताव स्थगित कर दिया गया इन्हें मैकेनिकल एवं स्ट्रक्चरल इंजीनियरिंग का अल्पकालीन प्रशिक्षण दिलाकर एचइसी में ही रखा गया। 1971 में उन्हों रेलवे कुली की बात संसद में उठाई। उनके अथक प्रयास से रेलवे कुली की स्थिति में कुछ सुधार हुआ। उनके पुत्र सिद्धार्थ घोष कहते हैं कि पिताजी ने हम लोगों को राजनीति से दूर ही रखा। वे नहीं चाहते थे कि उनका कोई बेटा राजनीति में कदम रखे।

नाम दल मत प्रतिशत

प्रशांत कुमार घोष स्वतंत्र पार्टी 43256 32.29 प्रतिशत

इब्राहिम अंसारी कांग्रेस 38233 28.54 प्रतिशत

अर्जुन अग्रवाल झारखंड पार्टी 29482 22.01 प्रतिशत

गोपाल महतो स्वतंत्र 10234 7.64 प्रतिशत

अनंग मोहन मुखर्जी स्वतंत्र 7118 5.31 प्रतिशत

चामू सिंह मुंडा स्वतंत्र 1981 1.84 प्रतिशत

शशि राय सिंह स्वतंत्र 1865 1.39 प्रतिशत

एमएच बजराय मुंडा स्वतंत्र 1790 1.34 प्रतिशत

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रांची वेस्ट एसटी

जयपाल सिंह झारखंड पार्टी 103310 -52.56 प्रतिशत

जोसेफ तिग्गा स्वतंत्र पार्टी 52432 26.67 प्रतिशत

लाल सिंह मुनरी कांग्रेस 40828 20.77 प्रतिशत

मुर्गे ने दी बांग, पंजा हो गया साफ


1957 में मीनू मसानी रांची से पहुंचे संसद, जयपाल सिंह ने अपने टिकट से लड़ाया था चुनाव


देश में जब दूसरी लोकसभा चुनाव की बयार बह रही थी तो रांची ने कई परिवर्तन देखे। अब तक झारखंड पार्टी का प्रभाव ग्रामीण क्षेत्रों में था, इस चुनाव में उसकी धमक शहर में भी दिखाई दी। पहले आम चुनाव में विजयी हुए कांग्रेस अब्दुल इब्राहिम को हार का मुंह देखना पड़ा। अब्दुल इब्राहिम दूसरे नंबर पर रहे और उन्हें. 32.59 प्रतिशत ही मत मिले। 1950 में गठित झारखंड पार्टी के प्रमुख जयपाल सिंह ने मुंबई के मेयर रहे मिनोचर रुस्तम मसानी (मीनू मसानी) को अपनी पार्टी से चुनाव लड़ा दिया और राष्ट्रीय आंदोलन में अग्रणी रही कांग्रेस हार गई। इब्राहिम को 36785 मत मिले। पहले चुनाव में इनका नाम अब्दुल इब्राहिम था और दूसरे आमचुनाव में इनका नाम इब्राहिम अंसारी हो गया। यही नहीं, रांची सीट भी इस बार रांची ईस्ट हो गई। पहले रांची नार्थ ईस्ट थी। जयपाल सिंह ने अपनी पुरानी सीट रांची वेस्ट से ही लड़े और लोकसभा में पहुंचे। यह सीट आरक्षित थी और रांची ईस्ट सामान्य थी। 1500 किमी दूर से आकर मीनू मसानी जयपाल सिंह की कृपा से संसद बन गए। हालांकि जयपाल के इस निर्णय पर पार्टी के अंदर और बाहर तीखी प्रतिक्रिया हुई, लेकिन तब जयपाल सिंह का प्रभाव कम नहीं था। झारखंड पार्टी का चुनाव मुर्गा था और कांग्रेस का पंजा। पर, आगे चलकर इसी पंजे की गिरफ्त में मुर्गा आ गया।


देश की आजादी में निभाई भूमिका

मीनू मसानी का जन्म मुंबई में 20 नवंबर 1905 को हुआ था और निधन 27 मई 1998 को। उन्होंने लंदन स्कूल आफ इकोनामिक्स से अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर और लिंकन इन्न से कानून की पढ़ाई की थी। 1929 में भारत वापस आने के बाद बंबई उच्च न्यायालय में वकालत शुरू की। लेकिन देश की आजादी में भाग लेने के कारण वकालत छोड़ दी। जयप्रकाश नारायण, अच्युत पटवर्धन, युसुफ मेहर अली एवं अन्य नेताओं के साथ मिलकर कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना की, लेकिन पार्टी में कम्युनिस्ट सदस्यों के बढ़ते प्रभाव के चलते वर्ष 1939 में लोहिया, मीनू मसानी, अच्युत पटवर्धन ने कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी से त्यागपत्र दे दिया और मसानी ने राजनीति छोड़कर टाटा कंपनी में काम करना शुरू कर दिया। 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुआत होने पर मीनू मसानी वापस सक्रिय राजनीति में लौट आए और आंदोलन में भाग लेने के कारण उन्हें जेल भेज दिया गया। जेल से छूटने पर वर्ष 1943 में मीनू मसानी बंबई के महापौर बने। बाद में भारत के संविधान सभा के लिए चुने गए और भारत के नए संविधान निर्माण में नागरिकों के मूल अधिकारों से संबंधित समिति के सदस्य बने। संविधान सभा में मीनू मसानी ने भारत में समान नागरिक संहिता लागू किए जाने का प्रस्ताव दिया था लेकिन उसे नामंजूर कर दिया गया। 1978 में जनता पार्टी की सरकार में ये मंत्री बने। उन्होंने अवर इंडिया नामक पुस्तक भी लिखी थी, जिसका अनुवाद हमारा इंडिया से 1942 में छपा था। 1950 तक इसके सात संस्करण छप चुके थे।


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1957 के चुनाव में रांची ईस्ट से कुल सात उम्मीदवार मैदान में थे। एक झारखंड पार्टी से और दूसरे कांग्रेस से। बाकी स्वतंत्र चुनाव लड़े थे।


नाम दल मत प्रतिशत

एमआर मसानी झारखंड पार्टी 39025- 34.58 प्रतिशत

एमडी इब्राहिम अंसारी कांग्रेस 36785- 32.59 प्रतिशत

रवींद्रनाथ चौधरी स्वतंत्र 13605 - 12.05 प्रतिशत

रामेश्वर महतो स्वतंत्र 12332 -10.93 प्रतिशत

जेसी हावर्ड स्वतंत्र 4311 -3.82 प्रतिशत

जान डेविड मैक्सवेल हैमिल्टन बजराज स्वतंत्र-3.06 प्रतिशत

मुनजीनी डेविड स्वतंत्र-3353-2.97 प्रतिशत

मदन काशी

 : डॉ शिवप्रसाद सिंह


कहते हैं कि एक बार जब श्रवणकुमार अपने माँ-बाप की बहेंगी उठाए सकल तीर्थ-यात्रा पर जा रहे थे, तब वह जमानियाँ पहुँचे। उन्होंने कस्वे के पास एक घनी अमराई देखकर बहँगी उतार दी। बेचारे गर्मी से परेशान थके-थकाए बहाँ पहुँचे थे। आम्रकुंज की शीतल छाया में उन्होंने राहत की साँस ली। गंगाजल पीकर स्वस्थ हुए। माँ-बाप की बेटे से पूरी सहानुभूति थी। उन्होंने उन्हें अच्छी तरह सुस्ता लेने का मौका दिया ।


'ऐ बुड्ढे, ऐ बुड्ढी !!"


श्रवणकुमार ने कहा- "मैं तुम लोगों का ताबूत ढोते रहने के लिए नहीं जन्मा हूँ।"


सम्बोधन मात्र से ही अन्धा-अन्धी भौंचक थे। आगे की बात सुनकर तो उन्हें लकवा ही मार गया हो जैसे। दोनों साँस रोके लड़के की बात पर कान अड़ाए बैठे रहे ।


"मारा कि जीवन चौपट करके रख दिया। कांवड़ ढोते ढोते कन्धों पर घट्टे पड़ गए। जो होना था हो चुका। बड़ी भक्ति निबाही। अब यह भार मुझसे चलने का नहीं। बाज आया ऐसे सुपूत के खिताब से !" वह गुस्से में पैर पटकते अमराई से बाहर की ओर चले। जाते हुए लड़के के पैरों की धमक सुनकर अन्धे ने कहा - "बेटा! तुमने जो कुछ कहा वह बिलकुल ठीक है। बस जाते-जाते एक विनती सुनता जा ।"


श्रवणकुमार ने पास आकर पूछा- "क्या है ?"


"बात यह है बेटे कि अमराई घनी है। इसमें से निकलने का हम रास्ता भी


नहीं ढूंढ़ पाएंगे। वस काँवड़ उठाकर थोड़ी दूर आगे ठीक सड़क पर रख देना। हम वहीं किसी राहगीर से पूछ-पाछकर रास्ता पा लेंगे। आगे जैसी प्रभु की मर्जी ।"


श्रवणकुमार को यह विनती कतई पसन्द नहीं आई; पर 'स्वभावो हि अति- रिच्यते' - सो उन्होंने पुराने घट्ठ पर फिर बहेंगी रख ली और कस्बे को पार


करके कुछ दूर सड़क पर आ गए । "बस बेटे, बस, यहीं रख दे हमें।" बुड्ढा बोला। उसकी आवाज में न दहशत थी, न निराशा ।


श्रवणकुमार ने बहेंगी उतार दी और फूट-फूटकर रोने लगे। उनकी हिचकियों का ताँता टूटता ही न था। अन्धे की आँखों से भी आंसू गिर रहे थे।


"पिताजी," श्रवणकुमार बोले- "मैं कितना अधम हूँ। पता नहीं कैसे मेरे मुँह से वैसी बातें निकल गईं। आप मुझे क्षमा कर दें पिताजी ।" बुड्ढे ने मुस- कराते हुए कहा - "बेटे, इसमें तेरी कोई गलती नहीं है। दोष जमीन का है।"


"जमीन का ?"


"हाँ बेटे, तूने जिस अमराई में कांवड़ उतारी थी, वह मातृहन्ता परशुराम का स्थल है। वहीं उन्होंने परशु से अपनी माँ की गर्दन उतार दी थी।"


श्रवणकुमार आत्मग्लानि से मुक्त हो गए ।


मगर हजार-हजार श्रवणकुमार जो इस अंचल में बसते हैं, चाहकर भी जमीन के दोष से मुक्ति नहीं पा सकते। वे कांवड़ उतार दें तो भी, चढ़ाए घूमते रहें तो भी, जमीन अपनी अन्तनिहित विशेषता से उन्हें लांछित करने में कभी नहीं चूकती ।


आपको शायद मालूम नहीं, जमनियाँ को मदन काशी भी कहते हैं। तेरहवीं शती के एक जैन काव्य में काशी से पूर्व में बीस कोस की दूरी पर अवस्थित मदन काशी की चर्चा की गई है। यहाँ भी गंगा की धारा उत्तरवाहिनी है। कहते हैं कि बटेश्वर के चक्रवन में पड़कर कोई बच नहीं पाता। मुझे मालूम नहीं कि वर्तुल लहरों का ऐसा जाल गंगा या किसी भी नदी में कहीं फैला है, पर मैंने अक्सर बरसात के दिनों में बटेसर के खोंचे में सड़ी हुई लाशों को चक्र की तरह गोलाई में घूमते देखा है। वह वही स्थान है जहाँ से गंगा उत्तरवाहिनी होती है, वह वही स्थान है जहाँ की थाह लेने के लिए गाजीपुर के कलक्टर ने बहुत कोशिश की; पर असफल हुए। हमारे ग्राम के पुरोहित चक्रवन या चक्कावन की कोई और भी व्युत्पत्ति बताते थे। भगीरथ के रथ के पीछे-पीछे गंगा चल रही थीं। अचानक रथ यहीं आकर रुक गया था। सारथी ने घोड़ों पर चाबुकों की बौछार की; पर घोड़े अड़ गए। घोड़े आदमी से ज्यादा विकसित स्वयंप्रकाश ज्ञान रखते हैं। वे जानते थे कि आगे मर्दोष जमदग्नि का आश्रम है। जमदग्नि यानी जमनिया । गंगा आश्रम डुबाकर बची रह जाएँगी क्या ? सो घोड़ों ने आगे बढ़ने से इन्कार कर दिया। राजा ने खुद बागडोर संभाली और घोड़ों को बढ़ाया। घोड़े आगे बढ़ने की बजाय चक्र में घूम गए। एक बार नहीं, दो बार नहीं, पाँच बार यानी वाण - 5 और वे मोड़ लेकर उत्तर की ओर बरजोरी रथ लेकर भागे । सो पाँच यानी वाण और चक्र माने गोलाई में घूमना । सो बन गया चक्कावान । पर मुझे तो यहाँ अथाह जल के भीतर पड़े अदृश्य परशुराम के इष्टदेव बटेश्वर शिव के ज्योतिलिंग पर घूमती मुण्डमाला ही दिखाई पड़ती है।


जाने दीजिए वे पुरानी बातें। न वह 'पर्वतो इव दुर्धयः कालाग्नीव दुःसहः' व्यक्तित्व रहा, कुण्ठित कुठार इसी खोंचे में धँस गया, जमदग्नि का आश्रम उजड़ गया। जिन गायों को छीनने में सहस्रबाहु की भुजाएँ टुकड़े-टुकड़े होकर बिखर गई थीं, उसी इलाके में मरियल अस्थि-पंजरावशेष ढोर यह भी क्या दृश्य है। संसद में विश्वनार्थासह गहमरी ने कहा था कि पूर्वांचल कितना उपे- क्षित है। वहाँ प्रतिवर्ष अकाल की जयन्ती मनाई जाती है। मरियल ढोरों के गोबर से काढ़े हुए अन्न पर हजारों लोग पेट पालते हैं, सुना तो पण्डित नेहरू की आँखें भर आई थीं। इस दास्तान को अलाव के आसपास बैठे बुड्ढे दुहरा- दुहराकर नेहरू जी की सहानुभूति के प्रति आँसू ढुलकाते थे—हाय-हाय, हमारी दुर्दशा सुनकर बेचारे की आँखें भर आईं । बुड्ढे नेहरू जी के दुःख से रो पड़ते थे। पर जब मैंने अपने ही ग्रामवासी एक श्रवणकुमार को गद्गद होते गलदश्रु भावुकता के साथ नेहरू के प्रति आभार व्यक्त करते पाया, तब मुझे अचानक बटेश्वर के चक्रवन में डूबे परशु का ध्यान हो भाया। कहाँ गया वह तेवर, कहाँ गया वह अन्याय को न सहने वाला वर्चस्व । इसीलिए कहा कि इस सूअर-बाड़े में आकर प्राचीन अतीत को सोचना गोबर के सड़े ढेर पर बुक्के की परत बिछाना है। मुझे तब बड़ी खुशी होती है जब देखता हूँ कि कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी ने भगवान् परशुराम को जमानियाँ से हटाकर भंड़ोच में खींच लिया है। मैं तो खुश होता यदि वह बटेश्वर के शिर्वालंग को, मदन काशी के पूरे इतिहास को व्याघ्रसर (बक्सर) और भृगुक्षेत्र (बलिया) को भी हमसे छीनकर किसी समृद्ध स्थान में प्रतिष्ठित कर देते। हमें नहीं चाहिए पुरखों का वह इतिहास, जिसकी मादकता और प्रकाश दोनों की यादें केवल रिसते घावों से छेड़छाड़ करती


हैं। अब न तो मादन रहा, न प्रकाश, फिर काहे को रहे यह मदन काशी । "कहिए सभापति जी, अब कितने छोकरे जाते हैं अपने गाँव से जमानियाँ डिग्री कालेज में पढ़ने ?"


सभापति बाबू केदारसिंह गर्व से कहते हैं- "चौबीस-पच्चीस । इससे कम नहीं।"


"पर इसमें से कहीं बाहर जाकर नौकरी-चाकरी करके बूढ़े-बूढ़ियों की सहायता के लिए अकाल की जयन्ती पर कलदार भेजने वाले एक भी नहीं।"


सभापति निराश हो चले। उन्हें लगता है कि जमीन बंझा हो रही है। न तो ये छोकरे काँवड़ पटक पा रहे हैं, न ढो हो पा रहे हैं।


मेरी कपसिया चाची सारे गाँव में 'चकचालन' यानी चक्र या चक्कर लगाने वाली के शाश्वत खिताब से विभूषित है। जाने कितनी इन्साइक्लोपीडिया उनके दिमाग में परत-दर-परत गड़ी पड़ी है। कुछ आँखों देखी, ढेर सारी कानों सुनी । "चाची, ठीक-ठाक है न ?"


"ठीक का है बचवा, 'मुआ सुराज' क्या हुआ खाने के लाले पड़ गए।" मैं चाची को इन्दिरा-समाजवाद पर भाषण दूँ या डाँगे, नम्बुद्रीपाद पर, कोई असर नहीं होने का । क्योंकि उनके चेहरे पर कुछ इस तरह की अनजानी झुरियों का ताना-बाना खिचा है जो दुःखों की इन्तहा से उत्पन्न उदासीनता के तागे से बना है, इसे भेदकर सातवें फाटक की लड़ाई लड़ने का साहस मुझ जैसे बौद्धिक में नहीं आ सकता जो सुविधापसन्द जिन्दगी से समझौता करके जबानी जगा- खर्च की मुद्रा में इनका हाल-चाल जानना चाहता है। आप गलियों में घुसिए- घुस नहीं पाएंगे क्योंकि वे गैरकानूनी ढंग से मकानों के भीतर या दीवालों के बगल के पुश्ते में ले ली गई हैं। आप घरों में घुसने की कोशिश कीजिए, असफल होंगे क्योंकि हर दरवाजे और निकसार पर ढेर सारी मक्खियों से छूल-ठुलैया खेलते अपरम्पार मरियल छोरों की भीड़ चोकठ पर ही बैठी मिलेगी, इन्हें दूसरी जगह कोई सूखी जमीन खेलने-बैठने के लिए नसीब ही नहीं होती। आप नई पीढ़ी के दिल में घुसने की कोशिश कीजिए, असफल होंगे क्योंकि वहाँ केवल दिशाहीन थक्के-थक्के कुहासे के अलावा कुछ है ही नहीं। आप बुजुर्गों के दिमाग में घुसने की कोशिश कीजिए, असफल होंगे, क्योंकि उनका दिमाग इस तरह उस है कि उसमें सिर्फ एक चीज कशमकश भरी है- "हुँह, ई पढ़वैया लोग खाली गप्प मारते हैं।" मैं सोचता हूँ कि क्या ये गलियाँ, ये घर, ये दिल, दिमाग कभी खुलेंगे भी ? कभी इनमें मादन या प्राण सचमुच उतरेगा।

 सुना; पटेल-आयोग ने पूर्वांचल के विकास के लिए एक लम्बी-चौड़ी रपट तैयार की। बड़ी कसरत, उठक-बैठक, ऊटक-नाटक के बाद रपट सरकार के हवाले की गई कि यह नितान्त व्यावहारिक और कम खर्च वाली योजना है, पर कुतुबमीनार हो या मेरुस्तम्भ, उसमें इतनी मंजिलें हैं कि रिपोर्ट का बुर्जी तक चढ़ पाना और वहाँ से उतरकर कपसिया चाची की झुर्रियों के सामने खुल पाना कतई सम्भव नहीं लगता। त्रिभुवननारायण सिंह और कमलापति त्रिपाठी या इसी तरह के दूसरे लोगों का इसमें क्या दोष । उन्हें सिर्फ जनता की गरीबी और हायतोबा में फंसकर जिन्दगी खराब करनी तो है नहीं। बड़े-बड़े काम हैं, कितनी उलझी हुई समस्याएँ हैं। फिर कुर्सी की हरकत से भी वे अच्छी तरह वाकिफ हैं, इसलिए वे उस कुर्सी को स्थिर खड़ी रखने में ज्यादा ध्यान दें तो इसे मामूली बढ़ई भी कमअक्ली कभी न कह पाएगा। हमारी आपकी तो विसात ही क्या !


उस दिन जमानियाँ के लाटफरेम पर दिहात के एक नामी-गरामी आदमी मिल गए । बोले- "बेटा, यह इलाका तो अब आने-जाने लायक भी नहीं रहा । बाल-बच्चों को लेकर कभी आना हो तो रात में गाँव के लिए न चल पड़ना।"


हमने मासूमियत से पूछा- "काहे काका !"


"अरे भइया, कल रात डेढ़गाँवा के दो जने कहीं रिश्तेदारी में नेवता लेकर जा रहे थे। वह तलासपुर की आढ़त है न ?"


मेरे सामने तलासपुर की आढ़त खड़ी हो गई। मेरा अंचल कश्मीर नहीं है, केरल नहीं है, और तो और मिर्जापुर और चुनार भी नहीं है, पर तलासपुर की आढ़त पता नहीं क्यों मुझे बेतरह खींचती है। किसी जमाने में यह गल्ले का विशाल गोदाम थी। जमानियाँ की गल्लामण्डी का 'पलैग पोस्ट' कह लीजिए । उन दिनों गल्ला व्यापारियों को इतना भी सन नहीं था कि वे देहात से खरीदा गल्ला एक मील दूर स्टेशन की मण्डी में रख आएँ । रखेंगे, ले जाएँगे वहाँ; पर पहले गल्ला उठा तो लें। अनाज के बोरों से लदी बैलगाड़ियाँ, बर- साती पानी से बचने के लिए तिरपाल या सरपत की छाजनों से डॅकी, लद्द टटुओं की कतारें, घंटी टुनटुनाते लद्दू बैल- सभी इस आढ़त के सामने आकर इकट्ठे हो जाते । गोदाम के कमरे व्यापारियों को अनाज रखने के लिए किराये पर उठा दिए जाते । सुबह से दूसरी सुबह तक सिर्फ एक कार्य-अनाज उता- रना और गोदाम में पहुंचाना। रात के धुंधलके में गाड़ीवानों के जलते हुए चूल्हे या अहरे, सिकती हुई बाटियों की महक, व्यापारी, मुनीम और गाड़ी- वानों की तकझक-क्या रौनक थी ! उस वक्त आढ़त के आँगन में पारिजात के दो पेड़ थे। वे फूलते तब थे, जब अनाज-गाड़ियों की भीड़ शुरू न होती थी। हम लोग पकते धानों के बीच से सुगापंखी खेतों की मेड़ों से गुजरते हुए इस आढ़त से पारिजात फूल बटोरने के लिए वहाँ पहुँच जाते ।


अब वहाँ सिर्फ खण्डहर हैं। आसपास के किसी गाँव के छोटे-से बनिये ने राहगीरों के लिए गुड़ पट्टी, रेवड़ी-लकठे की छोटी-सी दूकान खोल ली है, एक खण्डहर की दीवार पर फूस की मड़ई डालकर ।


"तो बेटा, उस रात हल्की बारिश होने लगी। वे दोनों जन उसी मड़ई में घुस आए। तुम जानते ही हो रात को बनिया वहाँ रहता नहीं। सारा सामान बटोरकर गाँव चला जाता है।"


"हाँ काका !" मैं कहता हूँ; पर स्मृति में पारिजात के ललछौहे अण्ठल बाले नाजुक फूल बहते-उतराते चले जा रहे हैं।


"बस एक आदमी ने सड़क से उन पर टाचं से रोशनी फेंकी। उसका चेहरा गमछे से ढंका था। बगल से वैसे ही दो और नकाबपोश निकले । सभी के हाथों में भाले थे। उन लोगों ने सामान छीनने की कोशिश की। एक से हाथापाई शुरू हुई, तब तक दूसरे ने पीठ में भाला मारा। और सामान लेकर चलते बने। मुश्किल से आठ-आठ रुपयों की दो साड़ियाँ, पचिक के मिठाई- खाजे-यही न ? इत्तेभर के लिए यह सब हो गया। राह चलना मुश्किल है, बेटा। अब जमनियाँ वह जमनियाँ नहीं रहा। जिस किसी को देखो कि थोड़ा नटवर है, बदन पर बुशटं और पतलून है, बिना कहे जान लो कि उसके पास पिस्तौल है, या बिजली का हण्टर है या और कुछ नहीं तो रामपुरी चाकू है। सारा इलाके का इलाका गुण्डों की जमींदारी हो गया।"


गाड़ी आ गई थी। वे चले गए। में सोचता रहा कि क्या सचमुच इधरती में ही दोष है ? पर नक्सलबाड़ी में तो परशुराम नहीं हुए। मुशहरी में कोई ऐतिहासिक अमराई नहीं है। श्रीकाकुलम बहुत दूर है भूगुक्षेत्र से-फिर; फिर, इसे क्या कहा जाए ? आखिर दोष किसमें है ?


कोई मेरे कानों में भुनभुनाता है- "तुम भी अन्धों की तरह धरती को दोषी कहकर मौन हो जाओ। इसी में लाभ है। इसी में खैरियत है। क्योंकि भ्रष्ट व्यवस्था में कभी भी आदमी दोषी नहीं होता, निर्जीव पदार्थों के सिर दोष मढ़कर अपना सिर बचाना ही बुद्धिमानी है, राजनीति है, सफलता की कुंजी है।"


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छोटानागपुर में संताल हूल के नायक थे अर्जुन मांझी

 

सिदो, कान्हू, चांद, भैरव ने 30 जून 1855 को हूल का जो शंखनाद संताल परगना में किया था, उसकी गूंज छोटानागपुर तक थीं। चारों भाइयों के अलावा हर क्षेत्र में क्षेत्रीय नायक थे। यह लड़ाई 1855 में ही खत्म नहीं हो गई थी। 1858 तक विद्रोह की आग सुलगती रही। इसी तरह छोटानागपुर में एक नायक थे अर्जुन मांझी। ब्रिटिश रिकार्ड में इनका नाम उर्जुन मांझी है। ये रामगढ़ के संताल थे और इन पर पचास रुपये का पहली बार इनाम घोषित किया गया और फिर सौ रुपये और अंत में दो सौ रुपये का इनाम घोषित किया गया। इससे इस क्रांतिकार अगुवा के महत्व को समझ सकते हैं। इसके बारे में हजारीबाग से लेकर रांची के प्रशासनिक कार्यालयों और आकाईव में भी ब्रिटिश अधिकारियों ने खोजबीन की लेकिन कुछ हाथ नहीं लगा।


1855 से 1858 तक विद्रोह के दौरान छोटानागपुर असंतोष और उपद्रव से परेशान था। ब्रिटिश अधिकारियों ने लिखा, संतालों ने देश की अस्थिर स्थिति का लाभ उठाया और अशांति फैलाई। कुछ जंगली जनजातियों ने भी अपनी शिकारी प्रवृत्ति को खुली छूट दे दी। मेजर सिम्पसन, प्रधान सहायक आयुक्त, हजारीबाग ने सात सितंबर, 1857 को कैप्टन ई.जे. डाल्टन, आयुक्त छोटानागपुर डिवीजन को एक पत्र लिखा, कि 300 बदमाश और संतालों ने मांडू के कृष्णा महतो के घर को घेर लिया और हमला किया। पुलिस के एक दल के आने पर वे पीछे हट गए। 11 सितंबर, 1857 को लिखे एक पत्र में कैप्टन डाल्टन ने बंगाल सरकार के सचिव को सूचित किया कि गोला और गोमिया में संतालों और अन्य लोगों के एक मिश्रित समूह ने नृशंस अपराध किए और पुलिस के अधिकार की अवहेलना की। 17 सितंबर को लिखे एक पत्र में मेजर सिम्पसन ने कैप्टन डाल्टन को सूचित किया कि गोमिया और रघुर के थानों की पुलिस रिपोर्ट उनके जिले के दक्षिण पूर्व हिस्से में देश की शांति का प्रतिकूल विवरण देती है। संतालों ने कई अन्य बदमाश, चुआड़, घाटवालों और अन्य लोगों के साथ हजारों की संख्या में एकत्र होकर गोला से दस मील से कुछ अधिक दूरी में कई गांवों को लूटा और कसमार और जंगी गांवों में हत्याएं कीं। लेफ्टिनेंट ग्राहम और अर्ल के नेतृत्व में रामगढ़ बटालियन 14 सितंबर को लुटेरों की नेता रूपो मांझी के गांव की ओर बढ़ी और पाया कि उसका घर लूटी गई संपत्ति से भरा हुआ है। 16 सितंबर को कैप्टन डाल्टन ने मेजर सिम्पसन को पत्र लिखकर रुपये का इनाम मंजूर किया। रूपा मांझी की गिरफ्तारी के लिए 100 रु का इनाम मंजूर किया। ब्रिटिश अधिकारी मान रहे थे कि इन गड़बड़ियों में अर्जुन मांझी का प्रमुख हाथ था। 26 सितंबर, 1857 को लिखे एक पत्र में कैप्टन डाल्टन ने मेजर सिम्पसन को उसकी गिरफ्तारी के लिए 200 रु इनाम के लिए बंगाल सरकार को पत्र लिखा। ब्रिटिश सरकार के लिए ये क्रांतिकारी लुटेरे, बदमाश, हत्यारे, विद्रोही ही थे। पत्रों में वे इन क्रांतिकारियों के लिए इन्हीं शब्दों का प्रयोग करते हैं। संताल विद्रोह के बहुत से नायक गुमनाम हैं या फिर ब्रिटिश अभिलेखों में कैद हैं।

मैकलुस्की ने बसाया था गंज


मैकलुस्कीगंज को कलकत्ते के कारोबारी टिमोथी मैकलुस्की ने बसाया था। उन्होंने ‘कॉलोनाइजेशन सोसाईटी आफ इंडिया लिमिटेड नाम की एक संस्था बनाई और इसी संस्था के नाम पर रातू महाराज से 10,000 एकड़ जमीन खरीदी। यह जमीन हरहू, दुल्ली, रामदगा, कोनका, लपरा, हेसालौंग, मायापुर, महुलिया एवं बसरिया गांव तक फैली है। तीन नवंबर 1934 को इस गांव की नींव रख थी। इसके बाद मैक्लुस्की ने प्रकृति के इस स्वर्ग में पूरे देश से एंग्लो-इंडियन समुदाय को यहां बसने का आमंत्रण दिया। 400 एंग्लो इंडियन परिवारों ने मैक्लुस्कीगंज में बसना तय किया। पर, पांच साल बाद ही द्वितीय विश्व युद्ध ने संकट पैदा कर दिया और बहुत से एंग्लो इंडियन परिवार रोजगार के कारण पलायन करने लगे। कुछ ने अपने बंगले कोलकाता के भद्र बंगालियों को बेच दिया तो कुछ ऐसे ही छोड़कर चले गए। देश की आजादी के बाद लगभग 200 एंग्लो इंडियन परिवार ही यहां बचे थे। वर्ष 1957 में बिहार के तत्कालीन राज्यपाल जाकिर हुसैन ने सोसायटी के लोगों को सलाह दी कि जो लोग ब्रिटेन जाना चाहते हैं, उनके लिए सरकार व्यवस्था करेगी। राज्यपाल के सलाह पर 150 परिवार पुनः विदेश चले गए। अब मात्र दस परिवार ही बचे हुए हैं।


लेखकों को आकर्षित करता रहा मैकलुस्कीगंज

मैकलुस्कीगंज लेखकों-पत्रकारों को आकर्षित करता रहा। बांग्ला के प्रसिद्ध उपन्यासकार बुद्धदेव गुहा, बांग्ला व हिंद फिल्मों की अभिनेत्री अपर्णा सेन ने भी मैकलुस्कीगंज में एक-एक बंगला खरीदा था। बुद्धदेव गुहा के मैक्लुस्कीगंज पर लिखे बांग्ला उपन्यास ने मैक्लुस्कीगंज को कोलकातावासियों के बीच काफी लोकप्रिय बनाया। अभिनेत्री अपर्णा सेन अपने जर्नलिस्ट पति मुकुल शर्मा के साथ मैकलुस्कीगंज में काफी दिनों तक रहीं। अपर्णा सेन ने अपनी फिल्म 36 चौरंगी लेन की पटकथा मैकलुस्कीगंज से प्रेरित होकर ही लिखी थी। साठ के दशक में मैकलुस्कीगंज आए एंग्लोइंडियन कैप्टन डीआर कैमरोन ने मैकलुस्की के हाइलैंड गेस्ट हाउस को खरीद लिया और मैकलुस्कीगंज के पुराने गौरव को लौटाने के लिए सभी तरह के उपाय किए। बेरोजगारी झेल रहे एंग्लो इंडियन परिवारों के लिए आशा की किरण तब जगी जब वर्ष 1997 में बिहार के मनोनीत एंग्लो इंडियन विधायक अलफ्रेड डी रोजारियो ने डान बास्को एकेडमी की एक शाखा मैकलुस्कीगंज में खोल दी। डान बास्को एकेडमी ने इस विश्वविख्यात धरोहर को उजड़ने से बचा लिया। एंग्लों इंडियन परिवारों ने अपने बंगलों को पेइंग गेस्ट के रूप में बच्चों का हास्टल बना दिया।


यहां देखने के लिए बहुत कुछ है

रांची से 40 किमी दूर मैकलुस्कीगंज में प्रकृति का खूबसूरत नजारा है। कई बंगले हैं। यहां बीच-बीच में फिल्मों की शूटिंग भी होती रहती है। यहां डुगडुगी नदी है। जंगल है। लातेहार जाने वाले रास्ते पर निद्रा गांव है। यह टाना भगतों के लिए मशहूर है। मंदिर और मस्जिद एक ही परिसर में बने हुए हैं।

राजा राममोहन राय रामगढ़ में विलियम डिगबी के रहे निजी दीवान

 



राजा राममोहन राय 22 मई को, पं बंगाल के हुगली जिले के राधानागर गांव में जन्मे थे। भारतीय पुनर्जागरण के अग्रदूत अपने समाज सुधार आंदोलन से पहले रामगढ़ में नौकरी कर चुके थे। पहले वे 1803 में वुडफोर्ड के दीवान के रूप में मुर्शिदाबाद में रहे। 1805 के अगस्त में वुडफोर्ड बीमार पड़ गए और वे स्वदेश चले गए तो राममोहन बेरोजगार हो गए। उन्हें अब नौकरी की जरूरत थी। उन्हीं दिनों उनके पुराने मित्र विलियम डिगबी, जिनसे कलकत्ते में रहते हुए मित्रता हुई थी, रामगढ़, जो उन दिनों हजारीबाग जिले का सदर मुकाम था, मजिस्ट्रेट के पद पर आसीन थे। राममोहन को उन्होंने अपने निजी दीवान के पद पर ले लिया। डिगबी के साथ-साथ वे रामगढ़ से जसौर, वहां से भागलपुर और फिर वापस सौर आए और अंत में 1809 में रंगपुर आए। यहां डिगबी कलक्टर पद पर पदोन्नत होकर आए। डिगबी के साथ राममोहन का यह निकट का संपर्क राममोहन के जीवन और विचारों के गठन में काफी महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। राममोहन के बारे में लिखते हुए मोण्टगोमरी मार्टिन ने कोर्ट जर्नल में लिखा था कि राममोहन ने डिगबी के अधीन काम लेते समय शर्त रखी थी कि वे दूसरे, 'कर्मचारियों की तरह 'साहब' के सामने पेश होते समय खड़े नहीं रहेंगे जैसा कि उन दिनों नियम था। डिगबी ने राममोहन के साथ अधीनस्थ कर्मचारी के रूप में कभी व्यवहार नहीं किया। वे हमेशा उनको एक परम मित्र का सम्मान देते थे। कुछ विद्वानों के अनुसार वस्तुतः राममोहन को खोज निकालने का श्रेय डिगबी को ही जाता है जिन्होंने राममोहन को हमेशा उत्साहित किया और पश्चिम जगत् के विचार, दर्शन और बुद्धिवाद से राममोहन का परिचय कराया। सन् 1805 में राममोहन ने डिगबी के अधीन नौकरी आरंभ की थी, और डिगबी के साथ-साथ हजारीबाग जिले के रामगढ़, भागलपुर, जसौर और बाद में रंगपुर में रहे। डिगबी ने थोड़े समय के लिए मजिस्ट्रेट के पद पर भी काम किया। यहीं पहले पहल राममोहन ने ईस्ट इंडिया कंपनी की नौकरी की। यहां तीन महीने के लिए फौजदारी अदालत में 'सरिस्तेदार' यानी रजिस्ट्रार के पद पर काम किया। जसीर और भागलपुर में राममोहन कंपनी की नौकरी नहीं बल्कि डिगबी साहब के निजी मुंशी के रूप में काम करते रहे। वे 1805 से 1809 तक काम किया। हजारीबाग में राजा राममोहन राय का आवास था। रामगढ़-चतरा-हजारीबाग तब एक ही था। इसके बाद वे रंगून में 1815 तक रहे।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तक पहुंची संजय कच्छप के मन की बात


माता-पिता बहुत गरीब थे। मजदूरी करते थे। मजदूरी करते हुए वे किसी तरह हमें पढ़ा पाते थे। आसपास भी गरीबी पसरी हुई थी। शिक्षा के प्रति हमारा समाज उदासीन था। सामाजिक कुरीतियां पीछा नहीं छोड़ रही थीं। हमारे समाज में हड़िया-दारू पीना जैसे संस्कार हो। पर, मन में शिक्षा की ललक थी। आठवीं-नौंवी-दसवीं तक काफी परिश्रम कर अपनी पढ़ाई की। 1996 में दसवीं के बाद बच्चों को ट्यूशन कर आगे की पढ़ाई की। इनमें भी गरीब बच्चों से कोई शुल्क नहीं लेते था। उस समय महंगी और जरूरी किताबों के साथ मार्गदर्शन की कमी महसूस कर रहे थे। 

 ये संजय कच्छप के बचपन का संघर्ष है। मन की बात में रविवार को देश के प्रधानमंत्री ने नरेन्द्र मोदी ने संजय कच्छप के काम को सराहा। पीएम ने कहा, संजय कच्छपजी गरीब बच्चों के सपनों को नई उड़ाने दे रहे हैं। संजय इस समय दुमका में कृषि विपणन में सचिव पद पर कार्यरत हैं। दैनिक जागरण से विशेष बातचीत में कहा कि शिक्षा से ही हम अपने समाज में बदलाव ला सकते हैं। शिक्षा के लिए जरूरी है किताबें। बचपन में हमने इस कमी को झेला था। पढ़ाई के दौरान ही यह प्रण लिया था कि हम समाज के लिए भी कुछ करेंगे। अपनी योजना में अपने दोस्तों को शामिल किया। इसकी शुरुआत गांधी जयंती के दिन हुई। दो अक्टूबर 2008 में पुलहातू, बड़ीबाजार, चाईबासा के सामुदायिक भवन में छोटे स्तर पर इसकी शुरुआत हुई। यहां पुस्तकालय खोलने के लिए भी काफी संघर्ष करना पड़ा। इसके बाद ऐसे लोगों को बात भी समझ में आ गई जब इनके परिवार के बच्चे यहां आने लगे। संजय बताते हैं, मेरे घर में मात्र दो कुर्सी थी। कुछ मेरी किताबें थीं। इसी से शुरू किया। जब कुर्सी ले जा रहा था तब मां बोली-मेहमान आएंगे तो कहां बैठाओगे? बहुत बड़ा हरिचंदर बना है? पर, मां आज मां बहुत खुश है। संजय ने मां से कहा, आज प्रधानमंत्री ने मेरे नाम-काम का जिक्र किया है तो मां बहुत खुशी से बोली-और अच्छा काम करो। दूसरों के जीवन में उजियारा लाओ।

मई 1980 में जन्मे झारखंड में लाइब्रेरी मैन से प्रसिद्ध संजय कच्छप ने 2004 से 2008 तक रेलवे में नौकरी की। 2008 में ही जेपीएससी से चयन के बाद विपणन विभाग में आ गया। तब से पुस्तकालय खोलने और बच्चों को पुस्तकें उपलब्ध कराने का काम जारी है। अब तक 12 डिजिटल लाइब्रेरी, 18 से ऊपर पुस्तकालयों में इंटरनेट व कंप्यूटर की सुविधा है और 24 से अधिक पुस्तकालय हैं। हमने इसे आंदोलन का रूप दिया। अपने मित्रों का सहयोग लिया। नक्सल प्रभावित इलाकों मुसाबनी, चक्रधरपुर, मनोहरपुर आदि सुदूर इलाकों में पुस्तकालय चल रहे हैं। पचास से अधिक बच्चे अधिकारी बन गए हैं। इससे बड़ा सुख क्या हो सकता है? 

42 वर्षीय संजय बताते हैं, अभी चार महीने पहले दुमका आया हूं। यहां आदिम जनजाति हास्टल में पुस्तकालय खोला। अपने गैराज को साफ-सुथरा कर रात्रि पाठशाला शुरू कर दिया है। यहां दो लोग सहयोग कर रहे हैं। जिला प्रशासन के सहयोग से अन्य आदिवासी छात्रावासों में भी पुस्तकालय खोलने का काम चल रहा है। 

 करीब ढाई हजार से ऊपर बच्चे पुस्तकालय से जुड़े हुए हैं। पूरे कोल्हान में करीब पांच हजार बच्चे पुस्तकालय से लाभान्वित हो रहे हैं। जिन गरीब आदिवासी बच्चों के पास स्मार्टफोन है, वे हमसे आनलाइन प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी के बारे में जानकारी लेते हैं। छोटे-छोटे प्रयास से ही हम यहां तक पहुंचे हैं। हमें खुशी होती है जहां हमार बचपन गुजरा, वहां गरीबी और स्लम जैसी स्थिति थी। वहां के बच्चे पढ़कर अपना मकान पक्का कर लिए हैं। इसमें पीएम आवास का भी योगदान हैं। पर, अब उनका परिश्रम और काम भी दिखता है। संजय अपने इस जुनून के लिए अपनी छुट्टियों को भी कुर्बान कर देते हैं।

बनारस में घुमन्तू वासी प्रवासी

 डॉ शुकदेव सिंह

यात्रियों, पर्यटकों के अलावा बनारस में कई हजार साल से रहन्तू औ घुमन्तू लोग आते रहे हैं। रहन्तु लोग गुजरात, महाराष्ट्र, दक्षिण भारत, उड़ीसा, बंगाल, नेपाल, तमाम जगहों से आये और गंगा के किनारे और किनारे ही किनारे रच बस गये। सोनारपुरा, नागरटोला, बंगाली टोला और त


माम गलियों में बसे हुए स्थायी निवासी खान-पान और रहन-सहन के साथ आये। घाट, मंदिर, धर्मशालाएँ, स्कूल, पाठशालाएँ, मदरसे उनकी स्मृतियों से जुड़े हुए हैं। लेकिन काशी के परिसर के बाहर बजरडीहा, लखरॉव, मडुवाडीह अर्थात् डीह, आराम ऐसे वासियों से भरे जो यहाँ के रहने वाले होकर भी घुमन्तू हैं। वज्रयान, सहजयान, महायान और सनातन धर्मयान के दबाव में उनकी मूलजीविका घूमना, माँगना, खाना से जुड़ गयी। नट, मदारी, सँपेरे, बहुरूपिया, बहेलिया, हिजड़े इसी तरह के घुमन्तू हैं। इनका घर भी है फिर बेघर हैं फिरकी, मौर, मुकुट, बाँसुरी, सारंगी, एकतारा बनाने बजाने वाले ये घुमन्तू बिना जर जमीन के 'माँग के खइबो मसीत को सोइबो' की हीं तुलसी जिन्दगानी जीते हैं। हिंदुओं की खुशी के लिए गाने-बजाने वाले, सजाने और हंसाने वाले ये लोग साँप, बंदर, भालू, कौड़ी से सजे हुए भविष्यवाणी बैल, कभी मोरपंख लेकर घर घर घूमकर दूसरों की किस्मत बनाते हैं और अपनी किस्मत के लिए पीर, मुर्शिद, फक्कड़ कई तरह का बाना धारण करते हैं। इनकी आबादी घट रही है। पेशे बदल रहे हैं, लेकिन सँपेरे और अल्हइत, जादूगर, भालू-बन्दर से मन मथने वाले ये लोग इस दहशत में हैं कि जायें तो जायें कहाँ ?

यह स्थिति क्यों है? इसलिए कि ये मूलतः बौद्ध थे। वज्रयान के प्रभाव में तंत्र, मंत्र, जादू टोना और खतरे उठाकर जीवन जीना इनकी कला बन गया। लोग इनसे डरने लगे, इनसे घृणा करने लगे। बौद्धों के विरोधकाल अर्थात् ईसा से दो सौ वर्ष पहले और ईसा की दसवीं शताब्दी तक प्रायः बारह सौ वर्षों में इनकी जिंदगी 'मारो' 'मारो', 'भागो भागो' की जिन्दगी हो गयी। वर्णाश्रम व्यवस्था में इनकी कोई जगह ही नहीं थी। अधिकांश ने धर्म परिवर्तन कर लिया लेकिन पाँच नमाज, महीने भर का रोजा उनकी रोजी-रोटी के लिए आफत ही था। ये दोनों दीन-धर्मों के बीच न हिन्दू, न मुसलमान, न घर, न बाहर की जिन्दगी जीने लगे। इनके जातीय विश्वास, विवाह, पुनर्विवाह, अपराध, दण्ड और मरण संस्कार के नियम अलग और थलग थे। इनमें कई जातियाँ जो अधम हिंदू का जीवन जीती हैं उनके मुर्दे भी न मसान जाते हैं न गंगा में प्रवाहित किये जाते हैं। उन्हें समाधि दी जाती है। मडुवाडीह की रेल लाइन के उस पार वाली पटरी में गोसाइयों की बस्ती थी जिस बस्ती का काशी गोसाईं निर्गुणियाँ था वह बताता था कि हमारे जवान कोई भी काम करते हैं। चोरी, छिनालपन, पुराने कपड़े लेकर बर्तन देना लेकिन यदि उमर उतार पर आने लगे तो हर घर एक जोगिया चोला होता है जिसे पहनकर ये मँगता गोसाईं के रूप में एकतारा, रवाब या कभी कभी करताल लेकर निर्गुण गाते हैं, माँगते हैं। काशी गोसाई ने सेण्डियॉगो के संगीत प्रोफेसर के लिए बीस निर्गुन गाये थे जिसके अमेरिका से एल. पी. रेकॅर्ड बने थे। उसने ही बताया कि जरूरत पड़ने पर वे अपने को दलित या ब्राह्मण कुछ भी कह लेते हैं। इन्हीं गोसाईयों से जुड़े हुए साईं और पँवरिया मुसलमान होते हैं जिनका उस्ताद नसिरुल्ला मडुवाडीह में पँवारा पढ़ते हुए राजा पुरुषोत्तम अर्थात् राम के कथा गीत गाता था। एक खजड़ी और एक किंगरी (छोटी सारंगी) की सहायता से कथा शैली में गाने वाले ये पँवरिया कुशीलव अर्थात् लवकुश संस्कार से जुड़े हुए थे। अब उनके वंश में जो हैं, वे हैं, लेकिन पेशा नहीं है। ये रैदास के गांव मंडेसर ताल और कुतुबशाह तैयब के मजार से जुड़े हुए हैं।

बजरडीहा, लखरॉव, मडुवाडीह के मजार, बगीचे, ताल, पोखर, रावलजोगियों, पतियों, ढोलकिया, असला कहार, सिकलीगर, कोरी, रैगर, बाजीगर, नचनी जातियों के भी अड्डे हैं। तैयब के मज़ार पर अब भी गोपीचंद भरथरी, रामावतारी, कृष्णावतारी, कबीर, बुल्लेशाह के निर्गुन गाने वाले रावलजोगी अशरफ के गीत भी गाते हैं। ये सब गुरु गोरखनाथ की शिष्य परंपरा में हैं। जौनपुर बस्ती, लम्हुवां, सुल्तानपुर, जखनियाँ, जमानियाँ समस्तीपुर, सीवान, अर्थात् बिहार से लेकर गोरखपुर देवरिया और कई पहाड़ी इलाकों से जुड़े हुए रावलजोगी घुरू के साथ मध्यम आकार की सारंगी लेकर अलख जगाते हैं। इनके दो नाम और दो धर्म होते हैं। जीवनलाल जैनुल, नरसिंह- नसीर, हबीबुल्ला बुलाकीराम या रजई, मिठाई, चौथी, खटूटू ऐसे नाम होते हैं जिनसे धर्म स्पष्ट न हो सके। ये शत प्रतिशत मुसलमान होते हैं। अपनी एक महीने की आरंभिक भैरवी गाने के बाद कांसा, पीतल, पुराने कपड़े दक्षिणा के रूप में लेते हैं और राजघाट अजगैबशहीद के मजार पर बेंचकर चुनार भर्तरी की समाधि पर शिव की पूजा करने के बाद गोरखपुर गोरखमठ के जोगी को गुरु फीस देते हैं। धर्म से मुसलमान और विश्वहिंदू परिषद् के सांसद महंत के शिष्य पूछने पर पूछते हैं शिव जी हिंदू थे या मुसलमान ?

ढोलकिया बाराबंकी से लेकर देश के कई हिस्सों से आकर कुतुबशाह के मजार के आस पास बसते रहते हैं। ढोलक पर नाल चढ़ाना उसे नाथना नाँधना रंग और पॉलिश का काम यहीं होता है। एक फीट से लेकर पूरे साइज की ढोलक बनाने बेंचने वाले ढोलकिया का एक सरदार महबूब हसन कहता है कि ढोलक हमारे किसी पर्व, त्यौहार, शादी विवाह या परोजन में हमारे घर नहीं बजती। आमतौर से मुसलमान के घर भी नहीं बजती। पुरुष ढोलक बेचते हैं औरतें टिकुली, बिन्दी, बउँखा, लहटी। इन्हीं से थोड़ी अलग एक और जाति है जिनके मरद दिन में सोते हैं, रात में जागते हैं। औरतें गोंदना गोदती हैं, सोहर गाती हैं। घरों के बारे में अंदाज लगाकर अपने मरदों को बताती हैं, जो रात में चोरी, डकैती करते हैं। इनकी एक जाति बावरिया है जिनकी औरतें सिकहर या कोई घरेलू सामान बेचती हैं। पुरुष परंपरा से देवी उपासक हैं। हत्या, हिंसा पेशा है। लेकिन वे न लोहे का कोई हथियार चलाते हैं, न बन्दूक, पिस्तौल । उनका हथियार कुन्द लकड़ी शायद बबूल की लकड़ी से बना हुआ लबेदा होता है। वे उसी से हिंसक लूट-पाट करते हैं। उनमें कुछ को आजकल कच्छावनियान वाला 'वावरिया’ कहा जाता है। ये नारी सूफी बावरी साहिबा से जुड़े कहे जाते हैं। असला कहार मूर्तियाँ बनाते हैं। प्लास्टर आफ पेरिस या मिट्टी से बने हुए इनके बर्तन भांडे और मूरतें सड़क पर तम्बू कनात लगाकर बनती हैं। वे घूम घूमकर कौड़ी के मोल, पानी के भाव बेचते हैं। बनारस में ये महमूरगंज, मडुवाडीह के आस पास ही रहते हैं। ये भी मुसलमान हैं जैसे अश्क की कहानी का 'काँकड़ा का तेली' कुम्हार भी है, तेली भी है, मुसलमान भी है।

 कबीर, रैदास इसी बजरडीहा, लखरॉव, पहड़िया, मडुवाडीह, लहरतारा की विहंगम जातियों के बीच श्रमजीवी दस्तकारों के परिवार से आये थे। उनकी जाति रही होगी धर्म भी रहा होगा लेकिन जोगी, जती, नट, लोना, बैद, बक्को, पवरियाँ, नचनी, कथिक, साई, गोसाईं के गाने बजाने, चमड़े और तार वाद्यों, करघों, रंगाई, बुनाई और गीत-संगीत से खाने जीने वालों के बीच रहने के कारण 'जाति भी ओछी, जनम भी ओछा, ओछाकसब हमारा' कहते हुए ये कवि, गीतकार खसम की खोज में अनहद - बाजा सुनने लायक हुए। अब इस घुनन्तू समाज के पास न अपना घर है, न घर के बाहर को दुनियाँ। ये दलितों में भी दलित हैं। इन पर कोई आरक्षण भी लागू नहीं होता क्योंकि न इनकी कोई जाति है न इनका कोई समर्थित धरम । मनुष्यता की विरादरी के जब दिन लौटेंगे तब  इनकी रातों में भी चाँद उगेगा। ●

साभार: नागरी पत्रिका, 14 जून 2005