नजरबंदी में भी रांची में जोश भरा था मौलाना ने

संजय कृष्ण, रांची
आजादी के एक प्रमुख सिपाही हिंदू-मुसलिम एकता के संबल मौलाना अबुल कलाम आजाद (11 नवंबर, 1888-22 फरवरी 1958) जब रांची से प्रकाशित साप्ताहिक पत्रिका 'आदिवासीÓ (वर्ष 18, अंक 28, 15 अगस्त, 1964) के एक अंक में समरुल हक ने 'आवाज गूंजती हैÓ नामक लेख में लिखा है कि 'रांची के बुजुर्ग जब मौलाना को देखते थे तो उन्हें विश्वास ही नहीं होता था कि इतनी कम उम्र का नौजवान इतना बड़ा साहित्यकार, ओजस्वी वक्ता और ब्रिटिश सरकार के लिए इतना भयानक हो सकता है। रांची में नजरबंद रहते हुए भी मौलाना आजाद की राजनीतिक और सामाजिक सरगर्मियां ठंडी नहीं पड़ी थी।Óमौलाना केवल तकरीर ही नहीं करते थे। लोगों में आजादी का जोश ही नहीं भरते थे। शिक्षा को लेकर अपनी चिंता को भी यहां परवाना चढ़ाया और कई संस्थाओं की नींव डाली। अगस्त, 1917 में उन्होंने अंजुमन इस्लामिया, रांची तथा मदरसा इस्लामिया की नींव डाली। ये दोनों आज भी हैं और उनकी स्मृतियों की गवाही देती हैं।
समरुल हक ने लिखा है कि जुमे की नमाज के बाद मसजिद में हिंदू भी मौलाना का भाषण सुनने के लिए आते थे। रांची के कुछ मुसलमानों ने विरोध प्रकट किया कि ये लोग मस्जिद में क्यों आ जाते हैं? उन लोगों की आपत्ति सुनकर मौलाना ने 'जामिल सवाहिदÓ नाम की किताब लिखी। यह हिंदू मुस्लिम एकता की बेजोड़ पुस्तक मानी जाती है।
रांची के गजनफर मिर्जा, मोहम्मद अली, डा. पूर्णचंद्र मित्र, देवकीनंदन प्रसाद, गुलाब नारायण तिवारी, नागरमल मोदी, रंगलाल जालान, रामचंद्र सहाय आदि उनसे अक्सर मिलते-जुलते रहते थे और आजादी पर चर्चा करते थे।
कहा जाता है कि 1919 में रांची के गौरक्षणी में हिंदू मुसलमानों की इतनी बेजोड़ सभा हुई कि इतनी भीड़ रांची  ने इसके पहले नहीं देखी थी। उस समय खिलाफत और असहयोग आंदोलन के बारे में ओज और तेज से भरी वक्तृताएं हुईं। मौलाना उस समय नजरबंद थे और सभा में जा नहीं सकते थे, फिर भी सारी प्रेरणा उनकी ही थी। सन 1919 में मौलाना की नजरबंदी से मुक्त हुए। उसके बाद वे रांची में गोशाला के गोपाष्टमी मेला के दिन अपना अंतिम भाषण देकर रांची से चले गए। उस दिन रांची गोशाला में हिंदू-मुसलमानों की इतनी सम्मिलित भीड़ थी, जैसा रांची के इतिहास में पहले कभी भीड़ नहीं जुटी थी। उनके जाने के बाद 1920 में यहां कांग्रेस का गठन हुआ। इसी साल गांधी भी रांची आए और लोगों से आंदोलन में भाग लेने की अपील की। इसके बाद तो कई बार गांधी आए और फिर रांची भी आजादी के दीवानों का एक प्रमुख केंद्र बन गया। 
रांची में नजरबंद थे तब भी आजादी का तकरीर करने से नहीं चूकते थे। कम से कम जुमे की नमाज के बाद तो उनकी तकरीर होती ही थी। वे आजादी का जोश भरते। उनकी तकरीर सुनने के लिए हिंदू भी मस्जिदों जाते थे। वे रांची में अप्रैल 1916 से 27 दिसंबर, 1919 तक रहे और आजादी के आंदोलन को परिपक्वता प्रदान की।

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