अकबर के काल में शुरू हुआ था पोइला बोइशाख

डा. रामरंजन सेन, ङ्क्षहदी-बांग्ला साहित्यकार।
आज पोइला बोइशाख 1423 बंगाब्द है। बंग समुदाय का नव वर्ष। आज ही के दिन समाज के सभी लोग उल्लास के साथ वर्ष वरण अर्थात नए साल का हार्दिक स्वागत करते हैं। विगत वर्ष में हमारा जो संकल्प साकार नहीं हुआ, उसे हम नए उमंग के साथ इस नए साल में पूरा करने एवं अपनी संस्कृति की रक्षा करने का संकल्प लेते हैं-नव वत्सरे करिलाम पण, लव स्वदेशेर दीक्षा। नव वर्ष का स्वागत करने के लिए कवि गुरु की भाषा में हम कहते हैं-पुरातन वस्तरेर जीर्ण क्लांत रात्रि, घुचे जाक ओरे यात्री।
एक समय था जब यह उत्सव व्यवसायी तथा परिवार तक ही सीमित था, लेकिन आज वर्षवरण उत्सव सामाजिक तथा सांस्कृतिक उत्सव बन गया है। यह बंगाब्द तथा नव वर्ष की सूचना कब और कैसे हुई-इसकी चर्चा होनी चाहिए। इस संदर्भ में विद्वानों में मतभेद तो है ही, लेकिन अधिकतर विद्वानों का कहना है कि 593 ईस्वी में 12 अप्रैल यानी पोएला बैशाख, बैसाख का पहला दिन, सोमवार, शैव धर्मावलंबी राजा शशांक ने गौड़ (वर्तमान में बंगाल)देश के सिंहासन पर आरोहण किया। उसी दिन से उन्होंने बंगला नव वर्ष अर्थात बंगाब्द प्रारंभ किया। उस समय से गणना की जाए तो 2016-593 यानी 1423। तो आज 1423 बंगाब्द है। इसके बाद बंगला नव वर्ष बादशाह अकबर के समय से प्रारंभ हुआ। अबुल फजल की आइने अकबरी से ज्ञात होता है कि अकबर के निर्देश से राजस्वमंत्री टोडरमल ने चैती फसल के बाद बंगाल में नई कर व्यवस्था बैशाख की पहली तारीख से शुरू की। उसी समय से नया हिसाब-किताब बैशाख से शुरू करने का नियम चल पड़ा। तब से व्यापारी लोगों ने इसी दिन से हाल खाता प्रारंभ किया। तब नए कपड़े पहनना, मंदिर या दुकान में हाल खाता की पूजा करना तथा घरों में स्वादिष्ट भोजन में ही नव वर्ष सीमित था, लेकिन 19वीं सदी के द्वितीयार्ध से यह सामाजिक एवं सांस्कृतिक रूप धारण कर लिया। हाल खाता का सिलसिला भले बंद हो गया हो, लेकिन नव वर्ष से जुड़ा उल्लास आज भी बरकरार है। अंधानुकरण के इस दौर में भी हमारी नई पीढ़ी भटक न जाए, इसलिए उन्हें भी इस उत्सव के साथ जुडऩे तथा अच्छा संस्कार देने के लिए हमें सचेष्ट होना चाहिए।
कवि गुरु रवींद्रनाथ ठाकुर ने ठीक कहा कि जिस तरह काल बैशाखी की आंधी पुराने सूखे पत्ते को उड़ा कर ले जाती है, उसी तरह हमारे जीवन में से पुराने वर्ष की सभी ग्लानि दूर हो जाती है। अत: मुद्दे जाक ग्लानि, घुचे जाक जरा, अग्नि स्नाने शुचि होक धरा।

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