35 की उम्र में शहीद हो गए तिलका

अंग्रेजों से लोहा लेने में तिलका मांझी और उसके संगठन की प्रमुख भूमिका रही। पूरा जंगलतरी का इलाका गोलियों और तीर-धनुष के बौछार से सहम उठा। अंग्रेजों की विशाल सेना के आगे तिलका माझी ने हार नहीं मानी। तिलका माझी पहला वह शहीद है, जिसने आजादी की अपनी कीमत चुकाई। तिलका ने अंग्रेजी शासन की बर्बरता के जघन्य कामों के विरुद्ध जोरदार तरीके से आवाज उठाई थी। इस वीर स्वतंत्रता सेनानी को 1785 में गिरफ्तार कर लिया गया और फांसी दे दी गई।

जंगल, तराई तथा गंगा आदि नदियों की घाटियों में तिलका मांझी अपनी सेना लेकर अंग्रेज़ी सरकार के सैनिक अफसरों के साथ लगातार संघर्ष करते-करते मुंगेर, भागलपुर, संथाल परगना के पर्वतीय इलाकों में छिप-छिप कर लड़ाई लड़ते रहे। क्लीव लैंड एवं सर आयर कूट की सेना के साथ वीर तिलका की कई स्थानों पर जमकर लड़ाई हुई। वे अंग्रेज़ सैनिकों से मुकाबला करते-करते भागलपुर की ओर बढ़ गए। वहीं से उनके सैनिक छिप-छिपकर अंग्रेज़ी सेना पर अस्त्र प्रहार करने लगे। समय पाकर तिलका मांझी एक ताड़ के पेड़ पर चढ़ गए। ठीक उसी समय घोड़े पर सवार क्लीव लैंड उस ओर आया। इसी समय राजमहल के सुपरिटेंडेंट क्लीव लैंड को तिलका ने 13 जनवरी, 1784 को अपने तीरों से मार गिराया। क्लीव लैंड की मृत्यु का समाचार पाकर अंग्रेज़ी सरकार डांवाडोल हो उठी। सत्ताधारियों, सैनिकों और अफसरों में भय का वातावरण छा गया।
एक रात तिलका मांझी और उनके साथी, जब एक उत्सव में नाच गाने की उमंग में खोए थे, तभी अचानक एक गद्दार सरदार जाउदाह ने संथाली वीरों पर आक्रमण कर दिया। इस अचानक हुए आक्रमण से तिलका मांझी तो बच गये, किन्तु अनेक वीर शहीद हो गए। तिलका मांझी ने वहां से भागकर सुल्तानगंज के पर्वतीय अंचल में शरण ली। भागलपुर से लेकर सुल्तानगंज व उसके आसपास के पर्वतीय इलाकों में अंग्रेज़ी सेना ने उन्हें पकडऩे के लिए जाल बिछा दिया।
तिलका एवं उनकी सेना को अब पर्वतीय इलाकों में छिप-छिपकर संघर्ष करना कठिन जान पड़ा। अन्न के अभाव में उनकी सेना भूखों मरने लगी। अब तो वीर मांझी और उनके सैनिकों के आगे एक ही युक्ति थी कि छापामार लड़ाई लड़ी जाए। तिलका मांझी के नेतृत्व में संथाल आदिवासियों ने अंग्रेज़ी सेना पर प्रत्यक्ष रूप से धावा बोल दिया। युद्ध के दरम्यान तिलका मांझी को अंग्रेज़ी सेना ने घेर लिया। अंग्रेज़ी सत्ता ने इस महान विद्रोही देशभक्त को बन्दी बना लिया। इसके बाद सन 1785 में एक वट वृक्ष में रस्से से बांधकर तिलका को फांसी दे दी गई। तब तिलका की उम्र महज 35 साल थी। आज तिलका को फिर से याद करने की जरूरत है। तिलका ने पहले पहल झारखंड में आजादी की अलख जगाई थी। वह पहला सिपाही था, जिसने अंग्रेजी सत्ता को चुनौती दी। 
तिलका को जबरा पहाडिय़ा के नाम से भी 
जाना जाता था। बचपन से ही तिलका मांझी जंगली सभ्यता की छाया में धनुष-बाण चलाते और जंगली जानवरों का शिकार करते। कसरत-कुश्ती करना बड़े-बड़े वृक्षों पर चढऩा-उतरना, बीहड़ जंगलों, नदियों, भयानक जानवरों से छेडख़ानी, घाटियों में घूमना आदि रोजमर्रा का काम था। जंगली जीवन ने उन्हें निडर व वीर बना दिया था। किशोर जीवन से ही अपने परिवार तथा जाति पर तिलका ने अंग्रेजों का अत्याचार देखा था। गरीब आदिवासियों की भूमि, खेती, जंगली वृक्षों पर अंग्रेज़ी शासक अपना अधिकार किए हुए थे। आदिवासियों के पर्वतीय अंचल में पहाड़ी जनजाति का शासन था। वहां पर बसे हुए पर्वतीय सरदार भी अपनी भूमि, खेती की रक्षा के लिए अंग्रेज़ी सरकार से लड़ते थे। पहाड़ों के इर्द-गिर्द बसे हुए जमींदार अंग्रेज़ी सरकार को धन के लालच में खुश किये हुए थे। लेकिन वह दिन भी आया, जब तिलका ने बनैचारी जोर नामक स्थान से अंग्रेज़ों के विरुद्ध विद्रोह शुरू कर दिया।  तिलका के नेतृत्व में आदिवासी वीरों के विद्रोही कदम भागलपुर, सुल्तानगंज तथा दूर-दूर तक जंगली क्षेत्रों की तरफ बढ़ रहे थे। राजमहल की भूमि पर पर्वतीय सरदार अंग्रेज़ी सैनिकों से टक्कर ले रहे थे। स्थिति का जायजा लेकर अंग्रेज़ों ने क्लीव लैंड को मैजिस्ट्रेट नियुक्त कर राजमहल भेजा। क्लीव लैंड अपनी सेना और पुलिस के साथ चारों ओर देख-रेख में जुट गया। ङ्क्षहदू-मुस्लिम में फूट डालकर शासन करने वाली ब्रिटिश सत्ता को तिलका मांझी ने ललकारा और विद्रोह शुरू कर दिया।

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