रांची से मारीशस यात्रा की दारुण गाथा है 'माटी माटी अरकाटीÓ

रांची से मारीशस की यात्रा वाकई में दारुण थी। 1850 के समय में यहां के आदिवासियों-मूलवासियों को जबरन मारीशस ले जाया गया, लेकिन
उपन्यास का उपशीर्षक है-हिल कुली की कहानी। तो यह भी जानिए कि हिल कुली का मतलब क्या है? पंकज जी भूमिका में लिखते हैं, 'भारत में ब्रिटिश उपनिवेश द्वारा यहां से बाहर ले जाए गए मजदूरों को तत्कालीन कंपनियां और उनके एजेंट उन्हें दो नामों से पुकारते थे। दक्षिण भारत, बिहार और पश्चिमी उत्तरप्रदेश के गैर आदिवासियों को वे कुली जबकि झारखंड के सदान और आदिवासियों को हिल कुली, धांगर और कोल संबोधन का इस्तेमाल करते थे।Ó
'गिरमिटियाÓ शब्द भी वस्तुत: एग्रीमेंट का बिगड़ा रूप है क्योंकि यहां से मजदूर एक एग्रीमेंट के जरिए ही मारीशस, गयाना, फिजी, सूरीनाम, त्रिनिदाद आदि कैरैबियन देशों में भेजे गए थे। इन देशों में गए कई भोजपुरी भाषी ने अपनी व्यवथा-कथा को कई बार लिखा है। वीएस नायपाल सबसे महत्वपूर्ण लेखकों में शुमार हैं, जिन्हें साहित्य का नोबेल मिल चुका है। लेकिन इन सबके बावजूद आदिवासी कहीं नहीं थे। जबकि इंटरनेट पर भरपूर सामग्री मौजूद है।  जाहिर है, इस शोध और खोजपरक उपन्यास को रचने में समाज के प्रति एक जवाबदेही तो लेखक की बनती है। इस अर्थ में अपने समाज और पुरखों को याद करने और ऋण चुकाने की बानगी के तौर पर भी इसे देख सकते हैं। हालांकि पंकजजी ने इसे 2008 में लिखने का मन बनाया था, लेकिन जितनी जानकारियां चाहिए थी, नहीं थी। पर न हार मानी न हिम्मत। जैसे एक लंबी यातना सहते हुए यहां के हिलकुली मारीशस गए, कुछ ऐसा ही उस मनोभाव और रेचन की प्रक्रिया से गुजरते हुए इस उपन्यास को रचा गया है। पुस्तक के अंत में करीब-करीब 142 संदर्भों का हवाला दिया गया है, जिससे आप समझ सकते हैं यह उपन्यास कैसे और किस शिद्दत से रचा गया है। कोंता और कुंती के बहाने हम रांची, झारखंड से मारीशस की यात्रा करते हैं। यह उपन्यास कई सवाल खड़े करता है और आंखों में पड़े हमारे पर्दे को भी हटाता है। सवाल यह है कि कैसे और कब गिरमिटिया कुलियों की नवनिर्मित भोजपुरी दुनिया से हिल कुली गायब हो गए? ऐसा क्यों हुआ कि गिरिमिटिया कुली खुद तो आजादी पा गए, लेकिन उनकी आजादी हिल कुलियों को चुपचाप गड़प कर गई। सवाल कई हैं? सभ्यता के इस संघर्ष में आदिवासी नजरिए और आदिवासियों की व्यथा-कथा को बहुत ही संवेदनशीलता के साथ इस उपन्यास में उकेरा गया है, जिसे अभी-अभी राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली ने प्रकाशित किया है।   
ङ्क्षहदी की विशाल पट्टी के लेखकों ने इस कथा को विषय नहीं बनाया। गिरिराज किशोर ने गांधी को केंद्र में जरूर 'पहला गिरमिटियाÓ लिखा, लेकिन गांधी नहीं, आदिवासी पहले गिरमिटिया थे। इस विषय पर पहली बार रांची के अश्विनी कुमार पंकज ने कलम चलाई और उन्होंने 'माटी माटी अरकाटीÓ में इस यात्रा का वर्णन किया है। माटी का मतलब तो माटी सभी जानते हैं। अरकाटी का मतलब दलाल होता है। ये दलाल ही यहां के भोले-भाले लोगों को कंपनी के एजेंटों के हवाले कर देते थे।

आंजन गांव के रहस्य से पर्दा उठाता है 'द इटर्नल मिस्ट्रीÓ


संतोष किड़ो पेशे से पत्रकार रहे हैं और अब सेंट जेवियर्स कालेज में पत्रकारिता पढ़ाते हैं। पेश के दौरान भी वे खालिस पत्रकार नहीं रहे। उनमें एक रचनाकार भी था। एक कथाकार भी। अभी उनका पहला उपन्यास 'द इटर्नल मिस्ट्रीÓ छपकर आया है
दर असल, यह उपन्यास उनके दिमाग में लंबे समय से पक रहा था। गाहे-बेगाहे जब मिलते तो इसका जिक्र जरूर करते। इस उपन्यास के लिए उन्होंने काफी मेहनत की। शोध किया और आंजन गांव में हफ्तों रहे। उस मिथ और उस कथा सूत्र को पकडऩे की कोशिश की, जो हजारों सालों से कही जा रही थी। 
आंजन, आप सब जानते हैं, यह गुमला जिले में पड़ता है और यह हनुमान की जन्मस्थली मानी जाती है। यहां जो प्राचीन प्रतिमा है, वह देश के दूसरे हिस्सों में नहीं मिलती है। यहां वह अपनी मां अंजनी की गोंद में विराजमान है। भारत के गांव-गांव में स्थापित उनकी प्रतिमा से सब परिचित हैं, लेकिन यह प्रतिमा भी दुर्लभ मानी जाती है। देश का बड़ा हिस्सा नहीं जानता कि हनुमान की जन्मस्थली झारखंड में है। इस उपन्यास से लोग इस गांव के बारे में भी जानेंगे।   यह उपन्यास इस अर्थ में अलग है कि यह मिथ से विज्ञान और विज्ञान से मिथ की यात्रा करता है और इस यात्रा के दौरान कई रहस्यात्मक चीजों से साबका पड़ता है। मुंबई से एक वैज्ञानिक कुछ शोध करने के लिए सिलसिले में आंजन गांव आता है और इस दौरान उसे कुछ अजीब-अजीब एहसास होते हैं। शोध का काम पूरा करने के बाद वह रिपोर्ट भेज देता है और उसकी यात्रा शुरू होती है। उसे एहसास होता है, जीवन के बारे में, मृत्यु के बारे में और उस नदी के बारे में, जो कल-कल बहती है। जीवन और रहस्य भी इन तीनों के इर्द-गिर्द घूमता है। अंजनी सुत के साथ शिवलिंग के मिथ से भी पर्दा उठता है। एक अलग दुनिया खुलती है, जो अब तक अनजान रही। इस बीच कथा पहाड़ी नदी के प्रवाह की तरह आगे बढ़ती है। उबड़-खाबड़ और हजारों-लाखों साल पुराने पठारों-पहाड़ों से टकराती हुई। इस उपन्यास की खासियत यह है कि इसमें मिथ भी है, इतिहास भी, पुरातत्व और लोक का संसार भी। इसलिए यह उपन्यास जितना कल्पना है, उससे कहीं ज्यादा हकीकत। एक आदिवासी परिप्रेक्ष्य में भी आंजन गांव को देखने की कोशिश की गई है। दूसरे शब्दों में इसे रामकथा से भी जोड़ सकते हैं। संतोष ने अपने इस पहले उपन्यास से प्रकाशन जगत में भी कदम बढ़ा दिया है। प्रकाशन का नाम 'चेरो एंड साल बुक्सÓ है। आइआइएम रांची से निकले देवाशीष मिश्र के साथ इसकी स्थापना पिछले साल की थी। इस प्रकाशन की यह पहली पुस्तक है।